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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

त्वं वरु॑ण उ॒त मि॒त्रो अ॑ग्ने॒ त्वां व॑र्धन्ति म॒तिभि॒र्वसि॑ष्ठाः। त्वे वसु॑ सुषण॒नानि॑ सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ varuṇa uta mitro agne tvāṁ vardhanti matibhir vasiṣṭhāḥ | tve vasu suṣaṇanāni santu yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

त्वम्। वरु॑णः। उ॒त। मि॒त्रः। अ॒ग्ने॒। त्वाम्। व॒र्ध॒न्ति॒। म॒तिऽभिः॑। वसि॑ष्ठाः। त्वे इति॑। वसु॑। सु॒ऽस॒ण॒नानि॑। स॒न्तु॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:12» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह उपासना किया ईश्वर क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य स्वयं प्रकाशस्वरूप ईश्वर ! जो (वसिष्ठाः) सब विद्याओं में अतिशय कर निवास करनेवाले (मतिभिः) बुद्धियों से (त्वाम्) तुमको (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं उन (त्वे) आप में प्रीतिवालों के (वसु) द्रव्य (सुषणनानि) सुन्दर विभाग किये (सन्तु) हों जो (त्वम्) आप (वरुणः) श्रेष्ठ (उत) और (मित्रः) मित्र है सो आप हमारी (सदा) सदा रक्षा करो और हे विद्वानो ! (यूयम्) तुम लोग ईश्वर के तुल्य (नः) हमारी (स्वस्तिभिः) स्वस्थता सम्पादक क्रियाओं से (सदा) सदा (पात) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वानों से सम्यक् बढ़ाया हुआ अग्नि दरिद्रता का विनाश करता है, वैसे ही उपासना किया परमेश्वर अज्ञान को निवृत्त करता है। जैसे आप्त लोग सब की सदा रक्षा करते हैं, वैसे परमात्मा सब संसार की रक्षा करता है ॥३॥ इस सूक्त में अग्नि, ईश्वर और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बारहवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स उपासितः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! ये वसिष्ठा मतिभिस्त्वां वर्धन्ति तेषां त्वे प्रीतिमतां वसु सुषणनानि सन्तु। यस्त्वं वरुण उत मित्रोऽसि सोऽस्मान् सदा पातु हे विद्वांसो ! यूयं जगदीश्वरवन्नोऽस्मान् स्वस्तिभिस्सदा पात ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (वरुणः) वरः श्रेष्ठः (उत) अपि (मित्रः) सुहृत् (अग्ने) अग्निरिव स्वप्रकाशेश्वर (त्वाम्) (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (वसिष्ठाः) सकलविद्यास्वतिशयेन वासकर्त्तारः (त्वे) त्वयि (वसु) द्रव्यम् (सुषणनानि) सुष्ठु विभाजितानि (सन्तु) (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) स्वास्थक्रियाभिः (सदा) (नः) अस्मान् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्वद्भिः संवर्धितोऽग्निर्द्रारिद्र्यं विनाशयति तथैवोपासितः परमेश्वरोऽज्ञानं निवर्तयति यथाऽऽप्ताः सर्वान् सदा रक्षन्ति तथैव परमात्मा सकलं विश्वं पातीति ॥३॥ अत्राऽग्नीश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सहसङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वादशं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा विद्वानांकडून सम्यक वाढलेला अग्नी दारिद्र्याचा नाश करतो तसा उपासना केलेला ईश्वर अज्ञान निवृत्त करतो. जसे आप्त विद्वान सर्वांचे सदैव रक्षण करतात तसा परमात्मा संपूर्ण जगाचे रक्षण करतो. ॥ ३ ॥